Wednesday, January 26, 2022

बहार आई, खिली कलियाँ, हँसे तारे, चले आओ 
हमें जीने नहीं देते ये नज़ारे, चले आओ 
 ज़ुबाँ पर आह बन-बन के तुम्हारा नाम आता है
 मुहब्बत में तुम्हीं जीते, हमीं हारे, चले आओ
..... 

अकेले कब तलक सूरज को ढलता देखेंगे 
कब तलक अंधेरों का डर पलता देखेंगे 
एक छोटा चिराग जलाया है, चले आओ 
उसे झोकों से बचाओ, चले आओ। 

किताबों की तहरीर से संभालता नहीं
बंधता तो है पर सधता नहीं 
तुम आओगे तो बहकने का डर है  मन 
अब तो बहका ही जाओ, चले आओ। 

शाम हुई भटकते, ठिठुरते, बिखरते 
पलों की गर्दिश से खुद को बचाते 
अपने आँचल में समेट लो, कुछ और  
इश्क़ की आग जलाओ, चले आओ। 

- साहिर लुधियानवी 










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