अपने ही शहर में कुछ यूँ फिरता हूँ
अपनी ही गली में हर शख्स से यूँ मिलता हूँ
रोज़ दिखते हों जो, पर सामने आते नहीं
पास से गुज़र जाते हैं पर मुस्कुराते नहीं
उनकी गहरी सांस की आवाज़ तक आती है मुझ तक,
पर बतियाते नहीं,
किनारों से मिलकर पानी के धारे जैसे
छू तो लेते हैं पर अपनाते नहीं
लगते हैं अपने ही हैं, एक ही देहलीज़ से निकले हुए
उन रिश्तों से बंधे जो, पिछले जन्मों से हैं
जो मौजूद हैं सदियों से
पर इस हस्ती में, नज़र आते नहीं।
अपनी ही गली में हर शख्स से यूँ मिलता हूँ
रोज़ दिखते हों जो, पर सामने आते नहीं
पास से गुज़र जाते हैं पर मुस्कुराते नहीं
उनकी गहरी सांस की आवाज़ तक आती है मुझ तक,
पर बतियाते नहीं,
किनारों से मिलकर पानी के धारे जैसे
छू तो लेते हैं पर अपनाते नहीं
लगते हैं अपने ही हैं, एक ही देहलीज़ से निकले हुए
उन रिश्तों से बंधे जो, पिछले जन्मों से हैं
जो मौजूद हैं सदियों से
पर इस हस्ती में, नज़र आते नहीं।
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