Tuesday, November 29, 2016

ज़िन्दगी चलती गयी

जब साथ चलने की बात हुई
कुछ कही कुछ अनकही भी साथ हुई 
जितना क्षण में भर सकते थे
जितना मन में रख सकते थे,
उतना सब तो तोल दिया  
जितना अग्नि से सांझा था 
जितना रिश्तों  ने बाँधा था 
उनसे ऊपर भी बोल दिया !

धागे, तब तो सिर्फ धागे थे 
हम तो सपनों के भी आगे थे
कभी दौड़ पड़े, कभी हम-कदम रहे 
कभी ठिठक गए कभी सिसक गए 
कभी चमक गए, कभी बहक गए
ज़िन्दगी, ज़िंदगी थी , चलती गयी 
गरजती, पसरती, संभलती गयी  
कुछ मैं बदलता गया  
कुछ तुम बदलती गयी।

कभी सोचा तुमसे बात करूँ
आज करूँ कल रात करूँ. 
अब एक कहानी नयी बुनूँ 
या पुरानी ख़त्म करूँ । 
मन पर एक अनजान पहरा सा था 
या ये समय का साँचा गहरा था 
किस्से किस्से रहे, हकीकत, हम रहे
मौसम तो मौसम थे , 
कभी खुश्क, कभी नम रहे!

ज़िन्दगी सिर्फ बदन नहीं थी, की पिघल जाती
या ख्वाब और फिक्र नहीं, की बहल जाती
उसके अपने रास्ते थे और अपनी मंज़िले
हम तो मुसाफिर थे, चलते गए
दूरियां, नज़दीकियां जगह बदलती गयीं
कुछ मैं ढलता गया, कुछ तुम ढलती गयी। 
















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