बड़ी हवेली और बड़ी सी चौखट
रास्ते घुमावदार और बड़े तख़्त वाली बैठक
अंदर कदम रखते ही कुछ ठण्ड सी महसूस होती थी।
पुरानी हवेली की वो पुरानी वाली खुशबू जो सिर्फ वहीँ मिला करती थी ।
दीवारों का प्लास्टर पथरीला सा था,
गावं के उन रास्तों की तरह, जो हवेली से गुजरा करते थे।
उन ऊँची दीवारों में झांकते रोशनदान
जैसे मेरा ही रास्ता तकते थे ।
कच्चे आँगन वाला गोबर और मिटटी से लीपा वो चौक,
गहन गर्मियों की तेज धूप भी थोड़ी सुस्ता लेती थी
उस सन्नाटे में,
जो सिर्फ टूटता था, ऊपरी मंज़िल पर तेज़ी से दौड़ते बच्चे की पदचाप से,
या फिर मेहमानों के आने से हुए कोलाहल से,
और ये लो! हो गई मनुहार की शुरुआत!
हम बच्चे हर वर्ष, हवेली के अगिनत कोनों को सँभालते
उनमे रखी नयी, पुरानी और पौराणिक वस्तुओं को खंगालते
कुछ यादों से भरी, कुछ मिटटी से सनी,
कुछ डरावनी सी, कुछ सिर्फ सुनी सुनी।
कभी उन कमरों में झांकते, जहाँ कोई नहीं जाता
और सुनते की वहां एक खज़ाना हैं, जिस पर नाग देवता का पहर है,
कभी वो पुरानी गिल्ली ढूँढ़ते, जो मैंने ही बबूल की लकड़ी से बनाई थी,
उसके छीले हुए सिरों को देख कर
सब याद आ जाता था, की कुल्हाड़ी मैंने कैसे कैसे चलाई थी।
कभी पूजा कक्ष में पूजा से ज़्यादा वह रखी तलवार को देखते
छुपे छुपाए उसे म्यान से निकाल कर उसकी धार मापते
जंग लगी तलवार को समझते शायद ये खून के धब्बे हों
और थोड़ा सारा युद्ध का माहोल सामने होता।
या फिर उसी पूजा कक्ष में गोंद के लड्डूओं की महक
पूजा के बीच भी मन ललचाती थी,
"है भगवान माफ़ करना, बच्चा हूँ" ये समझ शायद, थोड़ा थोड़ा करके
पूरा डब्बा साफ़ करवा जाती थी ।
कभी सामने नीम के पेड़ की ऊँगली जैसी डाल पर
झूला डालने की होड़,
या उसकी छावं में चादर बिछा कर, पिकनिक की जोड़तोड़
ये सब सच था, स्वप्न नहीं था,
न था तो सिर्फ ये गुमाँ , की ये सब हमेशा के लिए नहीं है
नाना-नानी नहीं हैं, पर हवेली तो वही है
गावं में रस्ते पक्के हो गए पर दीवारें और रोशन दान तो वही है
पर न अब वो शरारतें हैं, न छुपे ख़ज़ाने को कोई खंगालने वाला
सिर्फ यादें हैं जो अक्सर सपनों में
सच को रमा देती हैं,
कभी बहला देती हैं तो
कभी बीच रात में दहला देती हैं
मेरे अंदर छुपे उस बचपन को
फिर से हवेली में दौड़ा देती है!!
रास्ते घुमावदार और बड़े तख़्त वाली बैठक
अंदर कदम रखते ही कुछ ठण्ड सी महसूस होती थी।
पुरानी हवेली की वो पुरानी वाली खुशबू जो सिर्फ वहीँ मिला करती थी ।
दीवारों का प्लास्टर पथरीला सा था,
गावं के उन रास्तों की तरह, जो हवेली से गुजरा करते थे।
उन ऊँची दीवारों में झांकते रोशनदान
जैसे मेरा ही रास्ता तकते थे ।
कच्चे आँगन वाला गोबर और मिटटी से लीपा वो चौक,
गहन गर्मियों की तेज धूप भी थोड़ी सुस्ता लेती थी
उस सन्नाटे में,
जो सिर्फ टूटता था, ऊपरी मंज़िल पर तेज़ी से दौड़ते बच्चे की पदचाप से,
या फिर मेहमानों के आने से हुए कोलाहल से,
और ये लो! हो गई मनुहार की शुरुआत!
हम बच्चे हर वर्ष, हवेली के अगिनत कोनों को सँभालते
उनमे रखी नयी, पुरानी और पौराणिक वस्तुओं को खंगालते
कुछ यादों से भरी, कुछ मिटटी से सनी,
कुछ डरावनी सी, कुछ सिर्फ सुनी सुनी।
कभी उन कमरों में झांकते, जहाँ कोई नहीं जाता
और सुनते की वहां एक खज़ाना हैं, जिस पर नाग देवता का पहर है,
कभी वो पुरानी गिल्ली ढूँढ़ते, जो मैंने ही बबूल की लकड़ी से बनाई थी,
उसके छीले हुए सिरों को देख कर
सब याद आ जाता था, की कुल्हाड़ी मैंने कैसे कैसे चलाई थी।
कभी पूजा कक्ष में पूजा से ज़्यादा वह रखी तलवार को देखते
छुपे छुपाए उसे म्यान से निकाल कर उसकी धार मापते
जंग लगी तलवार को समझते शायद ये खून के धब्बे हों
और थोड़ा सारा युद्ध का माहोल सामने होता।
या फिर उसी पूजा कक्ष में गोंद के लड्डूओं की महक
पूजा के बीच भी मन ललचाती थी,
"है भगवान माफ़ करना, बच्चा हूँ" ये समझ शायद, थोड़ा थोड़ा करके
पूरा डब्बा साफ़ करवा जाती थी ।
कभी सामने नीम के पेड़ की ऊँगली जैसी डाल पर
झूला डालने की होड़,
या उसकी छावं में चादर बिछा कर, पिकनिक की जोड़तोड़
ये सब सच था, स्वप्न नहीं था,
न था तो सिर्फ ये गुमाँ , की ये सब हमेशा के लिए नहीं है
नाना-नानी नहीं हैं, पर हवेली तो वही है
गावं में रस्ते पक्के हो गए पर दीवारें और रोशन दान तो वही है
पर न अब वो शरारतें हैं, न छुपे ख़ज़ाने को कोई खंगालने वाला
सिर्फ यादें हैं जो अक्सर सपनों में
सच को रमा देती हैं,
कभी बहला देती हैं तो
कभी बीच रात में दहला देती हैं
मेरे अंदर छुपे उस बचपन को
फिर से हवेली में दौड़ा देती है!!
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