Saturday, March 29, 2014

मन के मन में!

मन की दुनिया, मन के दरिया,
मन की नाव और मन के चप्पू
साहिल सुदूर जो दिखे चमकते
कभी दिखे कभी ओझिल हो जाएँ
कभी बहकते, कभी सहमते
किसी पक्षी से आस लगाएं
पल में डरें और पल में छलांग लगाएं
मन के प्राणी, मन के मन में
मण मण के आकार बनायें
किसी को कहें कभी , कभी यूँ ही
खुद से बतियाते हुए पसर जाएँ
सब जब व्यस्त  है पृथ्वी  लीला में
मन ही क्यों मंगल पर जाए
क्यों पड़ा रहे करोड़ों सालों तक
एक सहमा सा अनजान अंतरिक्ष का पत्थर बन कर
या जमा रहे सेंकड़ों मीलों की बर्फीली परत बन कर
यहाँ सब कुछ तो है. शायद सब कुछ
फिर भी यूँ लगें की सूरज  तक तो जाऊं
बिना लाग लपट की, लपट बन जाऊं
अंदर  जलूं बाहर जलूं
जलूं इतना के बृह्मांड रोशन हो जाए
मैं जलूं यहाँ और वहाँ तहां जीवन सृजन हो जाये
कहाँ रात है और कहाँ है दिन
इस से मेरा क्या वास्ता !
कहाँ अपने हैं और कहाँ उनके बिन
इस से मेरा क्या वास्ता
मेरी लपट में जल जाएँ ब्रह्माण्ड भर के कपट
एक निर्मल आकाश रहे
मन के पखेरुओं के लम्बी उड़ान, निर्बाध रहे
इस धरती से उस धरती तक,
इस सौर मंडल से उस अंतरिक्ष तक,
इस जन्म से उन जन्मों तक
कभी बहकते कभी सहमते
मन के दुनिया में मन के प्राणी
चलें, बढ़ें और पार हो जाएँ!




 

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