Wednesday, May 28, 2014

SARWAR MEMORIES!!

बड़ी हवेली और बड़ी सी चौखट
रास्ते घुमावदार और बड़े तख़्त वाली बैठक
अंदर कदम रखते ही कुछ ठण्ड सी महसूस होती थी।
पुरानी हवेली की वो पुरानी वाली खुशबू जो सिर्फ वहीँ मिला करती थी ।
दीवारों का प्लास्टर पथरीला सा था,
गावं के उन रास्तों  की तरह, जो हवेली से गुजरा करते थे।
उन ऊँची दीवारों में झांकते रोशनदान
जैसे मेरा ही रास्ता तकते थे ।

कच्चे आँगन वाला  गोबर और मिटटी से लीपा वो चौक,
गहन गर्मियों की तेज धूप भी थोड़ी सुस्ता लेती थी
उस सन्नाटे में,
जो सिर्फ टूटता था, ऊपरी मंज़िल पर तेज़ी से दौड़ते बच्चे की पदचाप से,
या फिर मेहमानों के आने से हुए कोलाहल से,
और ये लो! हो गई मनुहार की शुरुआत!

हम बच्चे हर वर्ष, हवेली के अगिनत कोनों को सँभालते
उनमे रखी नयी, पुरानी और पौराणिक वस्तुओं को खंगालते
कुछ यादों से भरी, कुछ मिटटी से सनी,
कुछ डरावनी सी, कुछ सिर्फ सुनी सुनी।

कभी उन कमरों में झांकते, जहाँ कोई नहीं जाता
और सुनते की वहां एक खज़ाना हैं, जिस पर नाग देवता का पहर है,
कभी वो पुरानी गिल्ली ढूँढ़ते, जो मैंने ही बबूल की लकड़ी से बनाई थी,
उसके छीले हुए सिरों को देख कर
सब याद आ जाता था, की कुल्हाड़ी मैंने कैसे कैसे चलाई थी।

कभी पूजा कक्ष में पूजा से ज़्यादा वह रखी तलवार को देखते
छुपे छुपाए उसे म्यान से निकाल कर उसकी धार मापते
जंग लगी तलवार को समझते शायद ये खून के धब्बे हों
और थोड़ा सारा युद्ध का माहोल सामने होता।

या फिर उसी पूजा कक्ष में गोंद के लड्डूओं की महक
 पूजा के बीच भी मन ललचाती थी,
"है भगवान माफ़ करना, बच्चा हूँ" ये समझ शायद, थोड़ा थोड़ा करके
पूरा डब्बा साफ़ करवा जाती थी ।

कभी सामने नीम के पेड़ की ऊँगली जैसी डाल पर
झूला डालने की होड़,
या उसकी छावं में चादर बिछा कर, पिकनिक की जोड़तोड़

ये सब सच था, स्वप्न नहीं था,
न था तो सिर्फ ये गुमाँ , की ये सब हमेशा के लिए नहीं है
नाना-नानी नहीं हैं, पर हवेली तो वही  है
गावं में रस्ते पक्के हो गए पर दीवारें और रोशन दान तो वही  है
पर न अब वो शरारतें हैं, न छुपे ख़ज़ाने को कोई खंगालने वाला
सिर्फ यादें हैं जो अक्सर सपनों में
सच को रमा देती हैं,
कभी बहला देती हैं तो
कभी बीच रात में दहला देती हैं
मेरे अंदर छुपे उस बचपन को
फिर से हवेली में दौड़ा  देती है!!


Saturday, March 29, 2014

मन के मन में!

मन की दुनिया, मन के दरिया,
मन की नाव और मन के चप्पू
साहिल सुदूर जो दिखे चमकते
कभी दिखे कभी ओझिल हो जाएँ
कभी बहकते, कभी सहमते
किसी पक्षी से आस लगाएं
पल में डरें और पल में छलांग लगाएं
मन के प्राणी, मन के मन में
मण मण के आकार बनायें
किसी को कहें कभी , कभी यूँ ही
खुद से बतियाते हुए पसर जाएँ
सब जब व्यस्त  है पृथ्वी  लीला में
मन ही क्यों मंगल पर जाए
क्यों पड़ा रहे करोड़ों सालों तक
एक सहमा सा अनजान अंतरिक्ष का पत्थर बन कर
या जमा रहे सेंकड़ों मीलों की बर्फीली परत बन कर
यहाँ सब कुछ तो है. शायद सब कुछ
फिर भी यूँ लगें की सूरज  तक तो जाऊं
बिना लाग लपट की, लपट बन जाऊं
अंदर  जलूं बाहर जलूं
जलूं इतना के बृह्मांड रोशन हो जाए
मैं जलूं यहाँ और वहाँ तहां जीवन सृजन हो जाये
कहाँ रात है और कहाँ है दिन
इस से मेरा क्या वास्ता !
कहाँ अपने हैं और कहाँ उनके बिन
इस से मेरा क्या वास्ता
मेरी लपट में जल जाएँ ब्रह्माण्ड भर के कपट
एक निर्मल आकाश रहे
मन के पखेरुओं के लम्बी उड़ान, निर्बाध रहे
इस धरती से उस धरती तक,
इस सौर मंडल से उस अंतरिक्ष तक,
इस जन्म से उन जन्मों तक
कभी बहकते कभी सहमते
मन के दुनिया में मन के प्राणी
चलें, बढ़ें और पार हो जाएँ!




 

Saturday, January 11, 2014

नयी सुबह



जो गुजर गया, कोहराम था,
जो बसर हुआ, तेरा  ही  नाम था,
यूँ हर तरफ थे रास्ते, कि हर तरफ थी मंज़िलें
बाहर उफनते जलजले और भीतर बियाबान था




जो मिले थे दो कदम, वो चले भी साथ दो कदम,
रह रह कर पूछते मुझे, आशियाँ की दास्ताँ,
दुश्मनो कि दास्ताँ, दोस्त की नादानियाँ
हर दो कदम था आशियाँ, हर दो कदम घमासान था




यूँ नहीं कि डर गया, और कुछ भी किया नहीं,
ये किया कि वो किया, और वो भी जो वजह नहीं,
हर कदम हयात से अड़ा, गफलतों का रहनुमां
कब का दिल निकल गया, सांस को पता नहीं




अरमान ही  थे अमानत , बमुश्किल आज़ाद रहे,
साहिल लगा की पास है,  पर  हर मौज़ हम नाशाद रहे,
मिले किसी से जो अगर, मिल कर के  हम यूँ हंस दिए
कुछ लम्हे ही सही, क्यूँ न दिल आबाद रहे!




अब तो सेहर है हो चली, उफक पे लाली लाल है,
कदम अभी तक हैं थके  हुए,पर बदली हुई सी चाल है,
नहीं कि जलजले थम गए, और बादल कभी न आयेंगे,
बस ये कि पयाम मिल गया, और सुलग गयी मशाल है.


ये लौ फिर से लाल है,  अँधेरे मिट ही जाएंगे
संग की  अब फिक्र किसे,  कभी पिघल ही जाएंगे
कोहरा हट ही जाएगा, रस्ते संवर ही जाएंगे,
तेरे नाम से ये हाल है , मिल कर क्या न कर जाएंगे !