Monday, February 04, 2008

मधुरिमा कब तक

उलझेतारों से लड़ता कब तक,
एक अकेला जगता कब तक
रात गहराती नींद सताती,
सूने आस्मान को तकता कब तक।

एक अकेला गाता फिरता
गलियों का बेबाक सिकंदर,
सुर्ख लबों पर सूखे मंज़र
देख सिसकता जाता कब तक।

भोर हुई लो चली ज़िंदगी,
रफ़्तार पलों में सिमटी सिमटी
हर पल डर कर, हर पल मर कर,
चिर सत्य झुठालाता कब तक।

अब समय आ गया मधुरिमा,
आकाश तरंगों में जीने का,
अंतरतम के प्रबल तेज से
जर्जर मन को सीने का,

हर शाम क्षितिज के धुंधलके में
नत मस्तक हो कर करूं पुकार
एक देव, सिर्फ एक पुजारी
कुछ वचन पुष्प तुम करो स्वीकार।

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