Tuesday, January 08, 2008

Raftaar pe mera nagma

रफ़्तारशहर में, रफ़्तार कशिश है
ठहराव का आँगन धुआं धुआं है
कौन रुके और झांके भीतर
बेताब समंदर कुआँ कुआँ है

सुबह हुई फिर सूरज निकला
धुप वाही खुशनुमा खिली
सदियों से इंसान को जिससे
नई उमंग नई वजह मिली
अब देखो किस कदर धुप से
इंसान परेशान होता है
देर रात जो जगह हो बन्दा
देर सुबह तक सोता है

कितना कौतुक कितना दम था
हर मकडी के जाल में
नदी किनारे तकते बीते
कितने दिन यूँही साल में
कुछ और जोश था कम होश था
समय कुछ ठहरा ठहरा था
जलजले में बह गयी वो बस्ती
जहाँ खुदा का पहरा था

ज़िंदगी की खुशबुएँ दब गयी हैं रफ़्तार में
हर रस्ते पर जामे मुसाफिर, बिज़ली गुल बाज़ार में

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