Saturday, May 28, 2022

आम

नामा न कोई यार का पैग़ाम भेजिए

इस फ़स्ल में जो भेजिए बस आम भेजिए

ऐसा ज़रूर हो कि उन्हें रख के खा सकूँ

पुख़्ता अगरचे बीस तो दस ख़ाम भेजिए

मालूम ही है आप को बंदे का ऐडरेस

सीधे इलाहाबाद मिरे नाम भेजिए

ऐसा न हो कि आप ये लिक्खें जवाब में

तामील होगी पहले मगर दाम भेजिए

-अकबर इलाहाबादी 



Wednesday, January 26, 2022

नवनायिका

धधकते दावानलो में गिरते समुद्र
और सिमटते आकाशों और बदलते आयामों में
जहां एक क्षण में एक आकार, अणुपुंज बनकर समा जा सकता है
एक क्षण में वो लंबे प्रेम प्रसंग आंधियों में घुल कर बह जा सकते हैं
एक क्षण में क्षण की कल्पना, असाध्य विवरणों में खो जा सकती है
कुछ नहीं है वो, कुछ भी तो नहीं इस विशाल अनंत में
कुछ भी नहीं
पर
वो साकार है, रंगीन चित्रों की सजीव कृति है
वो एक चलायमान गीत है, प्रकृति का संगीत है
एक निश्चिंत विचार है, एक निर्भय अनुमान है
सृष्टि के उद्भव रहस्यों से परे,
वो विष और विषयों से परे,
कहीं यहीं मेरे आस पास खिलखिलाती
नवनायिका
एक डाल पर आई, बैठी और फुर्र से उड़ गई।


Manoj Kothari
बहार आई, खिली कलियाँ, हँसे तारे, चले आओ 
हमें जीने नहीं देते ये नज़ारे, चले आओ 
 ज़ुबाँ पर आह बन-बन के तुम्हारा नाम आता है
 मुहब्बत में तुम्हीं जीते, हमीं हारे, चले आओ
..... 

अकेले कब तलक सूरज को ढलता देखेंगे 
कब तलक अंधेरों का डर पलता देखेंगे 
एक छोटा चिराग जलाया है, चले आओ 
उसे झोकों से बचाओ, चले आओ। 

किताबों की तहरीर से संभालता नहीं
बंधता तो है पर सधता नहीं 
तुम आओगे तो बहकने का डर है  मन 
अब तो बहका ही जाओ, चले आओ। 

शाम हुई भटकते, ठिठुरते, बिखरते 
पलों की गर्दिश से खुद को बचाते 
अपने आँचल में समेट लो, कुछ और  
इश्क़ की आग जलाओ, चले आओ। 

- साहिर लुधियानवी 










इतने अर्से बाद

रोशनदानों से कबूतर, फड़फड़ा कर उडे होंगे फर्श की असली सतह अब दिखी होगी दूर लिखी इबारत अब साफ नजर आई होगी सब कुछ अलग सा दिखा होगा, इतने अर्से बाद


वहां से विमान उठे होंगे, वहां से साहिल हटे होंगे
लोगों का हुजूम फिर एक लकीर पर चला होगा
जो पर्दे में था अब तक, पता नहीं, था बाहर या अंदर
दिखा तो नहीं पर एक गुमां सा है, इतने अर्से बाद।

ये मोहब्बत की बातें, और बातों का जंजाल
ये अपने होते हुए भी उलझते हुए से बाल
इतना कुछ है जो है पर शायद अपना है नहीं
उससे रूबरू हुए हैं, इतने अर्से बाद।

आसमान ने खोल दिए हैं अंतरिक्ष के द्वार
मद्धम नाद में, हलकी आंच में
रूह से बेरूह तक बिखर गया जो,
सृजन समारोह, इतने अर्से बाद।

सिमटे कदमों से, सहमे लफ़्ज़ों से
कुछ कह पाऊँगा, कुछ भूल जाऊँगा,
कुछ जान पाऊँगा कुछ भी ना चाहूँगा,
जो कुछ रहेगा, जो कुछ बहेगा,
तेरा ही होगा,
जो बस में होगा, और जो नहीं,
इतने अर्से बाद।
- मनोज कोठारी

Thursday, November 04, 2021

Love and Solitude

 "Capacity to love. It may look paradoxical to you, but it's not. It is an existential truth: only those people who are capable of being alone are capable of love, of sharing, of going into the deepest core of another person--without possessing the other, without becoming dependent on the other, without reducing the other to a thing, and without becoming addicted to the other. They allow the other absolute freedom, because they know that if the other leaves, they will be as happy as they are now. Their happiness cannot be taken by the other, because it is not given by the other."


Osho

Monday, October 04, 2021

Aaj phir shuru hua jeevan- Raghvir Sahay

 


aaj

Ek din subah

सूर्य तो हर सुबह निकलता है 
उसके पहले कितने लम्बे रास्तों पर,
घुमावदार और अकेले,
चलना होता है। 

हर सुबह 
मेरे मन में एक प्रश्न होता है?
हृदय में फूल लिए 
सुगंध से भरे शब्दों के साथ  
ठिठकते, शरमाते क़दमों से
मंदिर तक जाऊँ और रामकृष्ण बनकर 
अनंत पूजा करूँ 
या 
अपने अस्तित्व से  बाहर 
आसमान के भी पार 
नभ गंगा के अंतिम छोर पे 
खड़ा रह कर अनंत की गहराइयों में 
तेरी परछाइयां ढूंढूं 
तेरे बिखरे स्वर्णिम स्वर्गों से 
गहरे पातालों तक 
कौतुहल का जंजाल सम्भालूं ?
या 
अपने कर्मों की मशीन के पुर्जों 
को नित नयी शक्ति देकर 
अपनी निष्काम चादर बुनता जाऊँ, 
चादर जो श्वेत अनंत तक बढ़े 
और मेरे दैविक अस्तित्व का पालना 
बन कर, हलके हलके झोंकों से 
वो सुन्दर निद्रा में गमन दे दे 
या 
ये उधार लिए वस्त्र यहीं उतार दूँ 
जिनसे अब तक 
संसार की परिभाषा मिली 
वो मेरी तो थी नहीं 
उधार के वस्त्रों में 
उधार के शब्दों से 
छिछले ग्रंथों के सीमाओं में 
सिमटने का प्रयास अब रोक दूँ 
और जो है जैसा है, उसे वैसा जानूं ,
नग्न, सत्य और नित्य जो है 
उससे, उसमे, उतर जाऊँ।

हर रोज़ सुबह हर रास्ते पर 
कुछ कदम चलता हूँ 
और लगता की शायद 
कुछ ठीक नहीं हैं 
और हर शाम फिर उसी 
नुक्कड़ पर पहुँच जाता हूँ 
जहाँ से राहें फटती हैं | 

एक दिन जब में सुबह उठूंगा 
नक्शा कुछ बदला सा होगा 
जिधर कदम बढ़ेंगे, रौशनी बढ़ती जाएगी 
मेरे होने और नहीं होने, के बीच के फासले मिटते जाएंगे 
ज़िन्दगी भर से बुनी चादर के टुकड़े सिल कर एक होते जाएंगे 
हृदय कक्षों में रखे सारे फूल फिर जीवंत हो कर महकने लगेंगे 
समस्त अंतरिक्ष को अपनी हथेली पर रख कर 
मंदिर की ओर कदम बढ़ाऊँगा
कुछ गाऊंगा 
कुछ रोऊँगा 
कुछ उस पल की 
गोद  में  यूँ  ही सो जाऊंगा |




 

Saturday, January 30, 2021

vaham

"मैं एहम था
यही वहम था"

zikr

"मैं जिसका ज़िक्र करता हूं, वो मेरी फिक्र करता है"..

Friday, December 11, 2020

Love and the lonely

"Capacity to love. It may look paradoxical to you, but it's not. It is an existential truth: only those people who are capable of being alone are capable of love, of sharing, of going into the deepest core of another person--without possessing the other, without becoming dependent on the other, without reducing the other to a thing, and without becoming addicted to the other. They allow the other absolute freedom, because they know that if the other leaves, they will be as happy as they are now. Their happiness cannot be taken by the other, because it is not given by the other."

Osho

Tuesday, November 24, 2020

बगावत

कुछ तो तिरे मौसम ही मुझे रास कम आये..
और कुछ मिरी मिट्टी में बग़ावत भी बहुत थी..
-परवीन शाकिर