सूर्य तो हर सुबह निकलता है
उसके पहले कितने लम्बे रास्तों पर,
घुमावदार और अकेले,
चलना होता है।
हर सुबह
मेरे मन में एक प्रश्न होता है?
हृदय में फूल लिए
सुगंध से भरे शब्दों के साथ
ठिठकते, शरमाते क़दमों से
मंदिर तक जाऊँ और रामकृष्ण बनकर
अनंत पूजा करूँ
या
अपने अस्तित्व से बाहर
आसमान के भी पार
नभ गंगा के अंतिम छोर पे
खड़ा रह कर अनंत की गहराइयों में
तेरी परछाइयां ढूंढूं
तेरे बिखरे स्वर्णिम स्वर्गों से
गहरे पातालों तक
कौतुहल का जंजाल सम्भालूं ?
या
अपने कर्मों की मशीन के पुर्जों
को नित नयी शक्ति देकर
अपनी निष्काम चादर बुनता जाऊँ,
चादर जो श्वेत अनंत तक बढ़े
और मेरे दैविक अस्तित्व का पालना
बन कर, हलके हलके झोंकों से
वो सुन्दर निद्रा में गमन दे दे
या
ये उधार लिए वस्त्र यहीं उतार दूँ
जिनसे अब तक
संसार की परिभाषा मिली
वो मेरी तो थी नहीं
उधार के वस्त्रों में
उधार के शब्दों से
छिछले ग्रंथों के सीमाओं में
सिमटने का प्रयास अब रोक दूँ
और जो है जैसा है, उसे वैसा जानूं ,
नग्न, सत्य और नित्य जो है
उससे, उसमे, उतर जाऊँ।
हर रोज़ सुबह हर रास्ते पर
कुछ कदम चलता हूँ
और लगता की शायद
कुछ ठीक नहीं हैं
और हर शाम फिर उसी
नुक्कड़ पर पहुँच जाता हूँ
जहाँ से राहें फटती हैं |
एक दिन जब में सुबह उठूंगा
नक्शा कुछ बदला सा होगा
जिधर कदम बढ़ेंगे, रौशनी बढ़ती जाएगी
मेरे होने और नहीं होने, के बीच के फासले मिटते जाएंगे
ज़िन्दगी भर से बुनी चादर के टुकड़े सिल कर एक होते जाएंगे
हृदय कक्षों में रखे सारे फूल फिर जीवंत हो कर महकने लगेंगे
समस्त अंतरिक्ष को अपनी हथेली पर रख कर
मंदिर की ओर कदम बढ़ाऊँगा
कुछ गाऊंगा
कुछ रोऊँगा
कुछ उस पल की
गोद में यूँ ही सो जाऊंगा |